नई दिल्ली

नई दिल्ली: भारत में स्वतंत्र पत्रकारिता पर एक नया खतरा मंडरा रहा है।

नई दिल्ली: भारत में स्वतंत्र पत्रकारिता पर एक नया खतरा मंडरा रहा है। पिछले एक दशक में पत्रकारों के खिलाफ कानूनी कार्यवाहियों में खतरनाक इज़ाफा हुआ है, जो पत्रकारों की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति के अधिकार के लिए गंभीर चुनौती बनता जा रहा है। एक शोध रिपोर्ट में

2012 से 2022 के बीच 427 पत्रकारों के खिलाफ दर्ज 423 मामलों का विश्लेषण किया गया है।
भारत में पत्रकारों के खिलाफ आपराधिक मुकदमों का चलन चिंताजनक स्तर तक बढ़ चुका है। यह एक शोध परियोजना का हिस्सा है, जिसे नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, ट्रायलवॉच और कोलंबिया लॉ स्कूल के ह्यूमन राइट्स इंस्टीट्यूट ने मिलकर तैयार किया है।

मुख्य तथ्य और आंकड़े:
मामलों का चरित्र: इन मामलों में पत्रकारों पर भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत आरोप लगाए गए, जिनमें देशद्रोह, सांप्रदायिक तनाव भड़काना, अफवाह फैलाना, और सरकारी कार्य में बाधा डालना शामिल हैं।
विषयवस्तु: जिन मुद्दों पर रिपोर्टिंग करने के कारण पत्रकारों पर कार्रवाई हुई, उनमें सरकार की आलोचना, अल्पसंख्यकों के अधिकार, भ्रष्टाचार, कोविड-19 की नीतियों और सामाजिक आंदोलनों की कवरेज प्रमुख हैं।

प्रक्रियात्मक उत्पीड़न: रिपोर्ट दर्शाती है कि सिर्फ एफआईआर भरना ही नहीं, बल्कि गिरफ्तारी, बार-बार समन, तकनीकी उपकरणों की जब्ती और लंबी कानूनी प्रक्रियाएं भी पत्रकारों को डराने और चुप कराने के उपकरण बन गई हैं।

अदालती देरी: बहुत सारे मामलों में फैसला आने में सालों लग जाते हैं, जिससे पत्रकारों का करियर, मानसिक स्वास्थ्य और आर्थिक स्थिति प्रभावित होती है।

लोकतंत्र पर असर: इस तरह के उत्पीड़नात्मक मामलों का असर सिर्फ व्यक्तिगत स्तर पर नहीं, बल्कि समूची मीडिया बिरादरी और देश के लोकतांत्रिक ढांचे पर भी पड़ता है।


पीड़ित पत्रकारों की आवाज़:

रिपोर्ट में कुछ पत्रकारों की व्यक्तिगत कहानियां भी शामिल हैं जो बताते हैं कि किस प्रकार वे मात्र अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए निशाना बनाए गए। कई पत्रकारों को बार-बार थाने बुलाया गया, उनके परिवारों को परेशान किया गया, और उन्हें पेशे से पीछे हटने के लिए मजबूर किया गया।

सिफारिशें और निष्कर्ष:

रिपोर्ट यह सुझाव देती है कि भारत सरकार को पत्रकारों के खिलाफ कानूनी प्रक्रिया के दुरुपयोग पर सख्ती से रोक लगानी चाहिए और प्रेस की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए न्यायपालिका को सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।

राजधानी से सुदूर ग्रामीण इलाकों तक, भारत के पत्रकारों के लिए रिपोर्टिंग अब केवल सवाल पूछने की कवायद नहीं रही—बल्कि यह साहस का प्रतीक बन गई है। प्रेस की स्वतंत्रता पर मंडराते खतरे को उजागर करती एक नई शोध परियोजना “Pressing Charges” बताती है कि पिछले एक दशक में पत्रकारों के खिलाफ आपराधिक मुकदमों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है, जो न केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को खतरे में डालता है, बल्कि भारत के लोकतांत्रिक ढांचे पर भी सवाल खड़े करता है।

डेटा से डर तक: एक दशक की तस्वीर

2012 से 2022 के बीच 427 पत्रकारों के खिलाफ 423 आपराधिक मामले दर्ज किए गए। इन मामलों में सबसे आम आरोप हैं:

देशद्रोह (धारा 124A)
सांप्रदायिक तनाव फैलाना (धारा 153A)
सरकारी कार्य में बाधा डालना (धारा 186)
आईटी अधिनियम की धाराएं, विशेष रूप से सोशल मीडिया पोस्ट्स को लेकर


स्थानीय पत्रकारों पर सबसे ज़्यादा मार

छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, कश्मीर, असम और झारखंड जैसे राज्यों में सबसे ज़्यादा मामले सामने आए हैं।
छत्तीसगढ़ के एक ग्रामीण पत्रकार राजेश यादव (नाम बदला गया) बताते हैं:

“मैंने सिर्फ यह रिपोर्ट किया था कि कैसे पंचायत के फंड में गड़बड़ी हुई। अगले दिन एफआईआर हो गई—देशद्रोह का आरोप लगा।”

राजेश के परिवार को पुलिस ने पूछताछ के लिए बुलाया, उनका फोन जब्त कर लिया गया, और उन्हें स्थानीय ठेकेदारों से धमकियां मिलने लगीं।

प्रेस की कीमत: गिरफ्तारी, समन, और मानसिक उत्पीड़न

रिपोर्ट यह भी बताती है कि पत्रकारों को सिर्फ क़ानूनी जाल में फंसाया नहीं जा रहा, बल्कि उन्हें मानसिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से तोड़ा जा रहा है।

बार-बार पुलिस समन
तकनीकी उपकरणों की जब्ती
लंबी जमानत प्रक्रियाएं
कोर्ट में सालों तक चलते मुकदमे


दिल्ली की स्वतंत्र पत्रकार नेहा शर्मा बताती हैं:

“मैंने कोविड-19 के दौरान अस्पतालों की हालत पर रिपोर्टिंग की। तीन महीने बाद मेरे खिलाफ एक आपराधिक केस दर्ज हुआ। मेरा लैपटॉप जब्त कर लिया गया, और तीन बार थाने बुलाया गया।”

न्यायिक देरी और करियर की तबाही

अनेक मामलों में चार्जशीट तक दाखिल नहीं होती, लेकिन मामला सालों तक अदालतों में लटका रहता है। इस बीच पत्रकारों का करियर रुक जाता है, मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ता है, और आर्थिक दबाव उन्हें पेशा छोड़ने पर मजबूर करता है।

लोकतंत्र की बुनियाद पर वार

विशेषज्ञ मानते हैं कि यह प्रवृत्ति केवल पत्रकारों पर हमला नहीं, बल्कि लोकतंत्र की संरचना पर सीधा प्रहार है।

प्रो. अर्पिता सेन, नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी से जुड़ी इस शोध परियोजना की प्रमुख, कहती हैं:

“पत्रकार लोकतंत्र की आंख और कान हैं। यदि उन्हें डराकर चुप कराया जाएगा, तो देश की आम जनता अंधेरे में रह जाएगी।”

क्या कहता है कानून?
भारत के संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है, लेकिन ज़मीनी हकीकत में पत्रकारों को इसी अधिकार के इस्तेमाल पर दंडित किया जा रहा है।
सिफारिशें: समाधान की ओर एक कदम

रिपोर्ट कुछ स्पष्ट सिफारिशें करती है:

एफआईआर दर्ज करने से पहले स्वतंत्र समीक्षा तंत्र हो।
पत्रकारों के मामलों की फास्ट-ट्रैक सुनवाई सुनिश्चित की जाए।
पुलिस को मीडिया मामलों की जांच में विशेष दिशा-निर्देश दिए जाएं।
न्यायपालिका को सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।
निष्कर्ष:
पत्रकारिता अपराध नहीं है, और सवाल पूछना देशद्रोह नहीं होना चाहिए। यदि सच बोलने वालों को ही कटघरे में खड़ा किया जाएगा, तो झूठ अपने आप विजेता बन जाएगा। “Pressing Charges” जैसी पहलें न केवल आँकड़े सामने लाती हैं, बल्कि हमें चेतावनी देती हैं कि अगर अब नहीं चेते, तो कल शायद बहुत देर हो जाएगी।

Khilawan Prasad Dwivedi

Sakti Samachar News is one of the biggest Hindi News portal where you can read updated Hindi News on Politics, Sports, Business, World, Entertainment etc.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *