
एक था मुकेश – पूनम वासम
एक था मुकेश – पूनम वासम
भारत सम्मान, रायपुर – आजकल इसी रास्ते से बार-बार गुजर रही हूँ, जब भी इस रास्ते से जाती हूँ न चाहते हुए भी नजर उस दीवार पर आकर अटक जाती है, जहाँ मुकेश की तस्वीर असहाय सी लटक रही है। दिल तड़पकर रह जाता है, कानों में जाने कैसी-कैसी आवाजें गूंजने लगती हैं ऐसा लगता है जैसे उसकी दो आँखें मुझे देख रही हैं, पूछ रही हैं दिद्दु, कहाँ जा रही हो? बिना मेरा हालचाल पूछे, मुझसे बात किए बिना, ऐसे कैसे गुजर रही हो इस रास्ते से? लगभग रोज ही मैं इस पीड़ा से होकर गुजरती हूँ, घंटों मुकेश की बातें उसकी आँखें मेरा पीछा करती रहती हैं।
मुकेश एक बेहद भावुक मन वाला लड़का था, जो पिछले एक साल से प्रायः रोज इस बात के लिए आँसू बहाता रहा कि वह मुतवेंदी की मंगली को नहीं बचा पाया, उसके लिए कुछ नहीं कर पाया। वह कहता था “बस्तर के आदिवासियों के हिस्से अभी बहुत संघर्ष है, अभी बहुत दुःख है, यहाँ कितना बारूद है, जाने कितनी बंदूकें उनकी छाती के भीतर घुसने को व्याकुल हैं। बहुत लोहा है यहाँ, बहुत घना जंगल है यहाँ, जीने-खाने के लिए प्रकृति भरपूर दे रही है, बावजूद इसके हम सबका पेट खाली है, भूख है कि बढ़ती ही जा रही है। सड़कें जाने किनके लिए चौड़ी होती जा रही हैं, दवाइयाँ जाने कहाँ डंप की जा रही हैं, स्वास्थ्य का बुरा हाल है, कोई चाहता ही नहीं कि बच्चे शिक्षित हों, बहुत अंधेरा है यहाँ, अभी भी मूलनिवासियों के हिस्से केवल शून्य है।”
सलवा जुडूम का दर्द उसकी आँखों में नमी बनकर जब-तब अपनी क्रूरता की गवाही देने को होती। छोटी-सी उम्र में माँ और भाई के साथ सलवा जुडूम कैंप में गुजरे उसके बेहद कठिन दिनों की कहानी को वह कभी दोहराना नहीं चाहता था। लेकिन उसे उस दुःख का अंदाजा हो गया था कि विस्थापन की पीड़ा कैसे व्यक्ति को तोड़कर उसके शरीर से उसका सारा खून चूस लेती है। मुतवेंदी की घटना से वह इतना व्यथित था कि जब भी बात करता, सिसक-सिसक कर रोने लगता। वह कहता था मुझे शर्म आती है लोगों की इस मानसिकता पर कि लोग जीते-जी इतना कैसे मर सकते हैं? उन्हें एक दूधमुंही बच्ची की मौत बेचैन नहीं कर पाती। वह सोचता था, वह कहता था मंगली यदि बड़ी हो जाती, तो शायद उसके गाँव की तकदीर और तस्वीर अलग होती। हो सकता था कि वह भविष्य की कोई डॉक्टर होती या कलेक्टर भी बन सकती थी। ऐसा हो सकता था, न? पर हुआ नहीं! कहते-कहते उसकी आँखें भीग जातीं।
‘बस्तर जंक्शन’ के लिए जब वह मंगली की रिपोर्ट तैयार कर रहा था, तब भी उसने कई बार मुझे फोन किया, उसने बहुत सारे वीडियो और फोटो मुझे यह कहते हुए भेजे कि दी, आप इस पर एक कहानी नहीं, बल्कि उपन्यास भी लिख देंगी, तब भी उनका दर्द नहीं समेट पाएँगी। यहाँ दुःख की लंबी कतारें लगी हुई हैं, हर घर की छानी पर दुःख से लबालब भरा हुआ एक तुम्बा लटक रहा है, जहाँ से दुःख धीरे-धीरे छनकर उनके जीवन में घुल रहा है।” वह कई-कई रातों तक जागता रहा, सिर्फ इस दर्द को लेकर कि काश! मंगली का जीवन थोड़ा लंबा होता, उसे ऐसी दर्दनाक मौत न मिली होती। वह हिड़मा कवासी की आईईडी ब्लास्ट में हुई मौत के कवरेज के दौरान भी फूट-फूट कर रो रहा था, जब वह घर आया तब भी उसकी जुबान पर यही एक बात थी कब तक, आखिर कब तक दी? इन बेगुनाहों की मौत पर हम सब दुबककर अपने-अपने घरों में कैद रहेंगे? क्या इनकी मौत पर इन्हें एक सम्मानजनक विदाई भी नसीब नहीं? कभी खाट पर तो कभी कावड़ बनाकर तो कभी किसी बर्तन का सहारा लेकर ये लोग जिंदगी के लिए संघर्ष करते-करते बेमौत मारे जाएँगे? इनकी जिंदगी इतनी सस्ती क्यों है दी?
वह ऐसा लड़का था कि पत्तियों का हरा रंग देखकर उसका मन भी हरा हो जाता, बिल्ली के “म्याऊं” बोलने मात्र से वह चहक उठता, उसे फूलों का बगीचा पसंद था, वह जंगल की बात करता, वह हक व न्याय की बात करता, स्कूल के बच्चों के लिए ढेर सारी कलर पेंसिल लेकर आता ताकि बच्चे रंगों के साथ खेल सकें। उसे रंगहीन जीवन पसंद नहीं था, वह जानता था कि दुख का रंग सफेद होता है। उसने एक ऐसा कठिन जीवन जिया, जिसमें अभाव था, दुख था, संघर्ष था, उसके आसपास कोई ऐसा प्रकाशपुंज नहीं था जिसकी रोशनी में वह अपने जीवन के संघर्ष की कहानी को उजला कर पाता। एक अकेला बच्चा बीहड़ से निकलकर पत्रकारिता के आसमान पर जगमगाने लगा यह कोई छोटी बात नहीं। बस्तर के बीहड़ों से लेकर बस्तर की धूल भरी पगडंडियाँ तक उसके कदमों की पदचाप को पहचानती थीं। वह उन लोगों के लिए एक पूरी दुनिया था जिन्हें कथित मुख्यधारा के लोग “यूज एण्ड थ्रो” की नजर से देखने के आदि थे, वह कुछ लोगों के लिए एक पूरी सरकार था जिसके होने से कुछ लोगों के जीवन में लोकतंत्र का कुछ अंश धड़कता था।
उसकी आँखों में ढेर सारे सपने थे पर उनमें से कोई सपना उसका अपना नहीं था, वह जंगल की सिसकियों को शहर की पक्की ईंटों के बीच भरना चाहता था, ताकि ईंटों में आँसुओं की नमी बनी रहे। कितनी छोटी-सी उम्र में कितना कुछ बदलने की बात करने वाला लड़का कितनी जल्दी में था कि सब कुछ जल्दी-जल्दी करने लगा। जल्दी से बड़ा हुआ, जल्दी से समझदार, जल्दी से एक क्रांति का हिस्सा बना और उतनी ही जल्दी से लोगों की आँखों में चुभने लगा। वह जानता था कि यह जंगल केवल हरियाली वाला जंगल नहीं है, यह जंगल संघर्ष वाला भी जंगल है। यहाँ हर साँस की कीमत चुप्पी है। वह जानता था कि जंगल की मिट्टी में सिर्फ पेड़ ही नहीं उगते, बल्कि दर्द, शोषण, विस्थापन और अन्याय भी उगते हैं, वह जानता था कि कैसे इन्द्रावती नदी की धार में लहू की धार मिलती है, वह जानता था कि इस लड़ाई का कोई अंत नहीं।
बावजूद इसके, वह खड़ा रहा, मैं भी खड़ी हूँ वहीं उसी मोड़ पर जहाँ हमारी आखिरी बात हुई थी, उस दिन मेरा जन्मदिन था उसने फोन किया और कहा दी हम दोनों लॉन्ग ड्राइव पर चलते हैं और लौटते हुए कॉफी पीते हैं, इस बार की कॉफी मेरी तरफ से होगी, आपका बर्थडे गिफ्ट। उस दिन उसने बहुत सारी बातें बताईं, पर यह नहीं बताया कि यह हम दोनों की आखिरी बातचीत है, उसी दिन शाम से उसकी कोई खबर नहीं मिल रही थी, काश! मुझे थोड़ी भी आशंका होती कि कुछ ऐसा घट सकता है, तो मैं कहती “भैया मेरे यहीं ठहर जाओ।”
कॉफी के दो कप अभी भी खाली हैं, उनमें कॉफी नहीं, हम सबकी उदासी की परछाइयाँ हैं। ऐसे तो मैं सबका नंबर एक-दो दिन में फोन से हटा देती हूँ, पर तुम्हारा नाम देखते ही मन करता है अभी तुम्हें फोन लगाऊँ और बताऊँ कि देखो
दुनिया में लोग भरे पड़े हैं, भरी पड़ी है दुनिया लोगों से, लेकिन भरी पड़ी इस दुनिया में, भरे पड़े लोगों के बीच कितना अखरता है एक तुम्हारा न होना।